२९ मई, १९५७

 

 ''जिस आदर्शकी हमने कल्पना की है उसका मूलसूत्र है दिव्य शरीरमें दिव्य जीवन... धरतीपर विकासकी प्रक्रिया अब- तक बहुत धीमी और मंद रहीं है -- यदि यहां एक रूपांतर, एक क्रमिक या आकस्मिक परिवर्तन अपेक्षित है तो किस तत्व- को इसमें हस्तक्षेप करना होगा?

 

         ''यह तो निश्चित है कि अपने विकासके परिणामस्वरूप ही हम इस रूपांतरकी संभावनातक पहुंचते हैं । जैसे प्रकृतिने 'जुड़-तत्व'से परे विकसित होकर 'प्राण'को व्यक्त किया और 'प्राण'- त परे विकसित होकर 'मन' को अभिव्यक्त किया, ऐसे ही अब 'मन' से भी परे विकसित होकर उसे हमारी सत्ताकी एक ऐसी चेतना और शक्तिको अभिव्यक्त करना है जो हमारी मानसिक सत्ताकी अपूर्णता और ससीमतासे मुक्त होगी, जो अतिमानसिक या सत्य-चेतना होगी और आत्माकी शक्ति और पूर्णताको विकसित करनेमें समर्थ होगी । यहां धीमा या मंद परिवर्तन जरूरी तौरपर हमारे विकासका विधान या तरीका नहीं रह जायगा, ऐसा कम या अधिक मात्रामें केवल तभी- तक रहेगा जबतक मन अज्ञानसे चिपटा रहेगा और हमारे

 

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आरोहणको अटकाये रखेगा, परंतु एक बार जय हम सत्य- चेतनामें विकसित हो जायेंगे तो सत्ताके आध्यात्मिक सत्यकी शक्ति ही सब कुछ निर्धारित करेगी...

 

         ''यह भी संभव है कि रूपांतर क्रमिक अवस्थाओंमें संपन्न हो । प्रकृतिकी कुछ शक्तियां मनोमय भूमिकासे संबंध रखते हुए भी बढ़ते हुए विज्ञानकी ही अप्रकट संभाव्यताएं हैं, ३ हमारे मानवीय मनसे ऊपर उठी हुई हैं तथा भगवानके प्रकाश और शक्तिमें हिस्सा बंटाती है । ऐसा प्रतीत हो सकता है कि इन स्तरोंमेंसे होकर आरोहण और उनका मानव प्राणीमें अव- तरण ही विकासकी स्वाभाविक दिशा होगी । परंतु व्यवहार- मे यह पता लग सकता है कि ये मध्यवर्ती स्तर संपूर्ण रूपांतर- के लिये पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि, वे स्वयं मनकी ही ज्योतिर्मय संभाव्यताएं हैं, शब्दके पूरे अर्थमें अतिमानसिक नहीं, अतः वे मनमें केवल आशिक दिव्यता ही उतार ला सकते हैं या इसे उस दिव्यताकी ओर ऊपर उठा सकते हैं परंतु सत्य- चेतनाकी पूर्ण अतिमानसिकतामे ऊपर नहीं ले जा सकते । फिर भी ये स्तर आरोहणके सोपान या अवस्थाएं बन सकते है जिनतक कुछ लोग पहुंचेंगे और वहीं ठहर जायंगे, जब कि दूसरे और ऊपर चले जायंगे और अर्द्ध-दिव्य जीवनके श्रेष्ठ- तर स्तरपर पहुंच जायंगे ओर वहां निवास करेंगे । यह नहीं मान लेना चाहिये कि सारी मानवजाति एक साथ अतिमानसमें उठ जायेगी ।... .''

 

(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

              आज शाम मैं तुमसे ठीक इसी क्रमिक रूपांतरके बारेमें कुछ कहूंगी... प्रायः ही मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है : जब हम एक आदर्श सिद्धान्तके तोरपर यह मानते है कि अपने शरीरके साथ व्यवहार करते हुए यह ज्ञान रहना चाहिये कि शरीर विश्वकी सर्वोच्च 'सद्वस्तु'का और हमारी सत्ताके सत्यका केवत्र एक परिणाम और यंत्र-भर है -- और इस बातको सीखा देने और स्पापुट कर देनेके बाद कि हमें इसी सत्यको साधना है, हमारे आश्रमके संगठनमें चिकित्सक और औषधालय क्यों है? सर्वत्र मान्य आधुनिक सिद्धान्तोंपर आधारित यह शारीरिक शिक्षण-पद्धति क्यों है? और जब तुम घूमनेके लिये बाहर जाते हों तो क्यों मैं तुमसे कहीं औरका पानी बिलकुल न पीने और फिल्टरका पानी साथ ले जानेके लिये कहती

 

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हू? ओर जो फल तुम्हें खानेके लिये दिये जाते है उन्हें मैं कीटाणु-नाशक घोलसे क्यों धुलवाती हू, आदि?

 

         यह सब तुम्हें, परस्पर-विरोधी प्रतीत होता है । पर इस शाम मैं तुम्हें बहुत स्पष्टतासे ऐसी चीज समझा देना चाहती हू जो -- मैं आशा करती हू -- तुम्हारी इस विरोधी भावनाको समाप्त कर देगी । असलमें, मैं तुम्हें कई बार बता चुकी हू कि जब दो विचार य। सिद्धान्त परस्पर-विरोधी प्रतीत होते हों तो व्यक्तिको अपने विचारमें जरा ऊपर उठकर उस बिंदुको खोज निकालना चाहिये जहां ये विरोध एक व्यापक समन्वयमें मिल जाते है !

 

          इस प्रसंगमें, समन्वय पाना बहुत आसान है यदि हम एक बातको ध्यानमें रखें कि अपने शरीरके साथ व्यवहार करनेके लिये, इसके पोषण एवं रक्षण- के लिये, इसके स्वास्थ्यको अच्छी दशामें बनाये रखने और उन्नत करनेके लिये जो पद्धति हमें बरतनी होती है वह पूरी तरह चेतनाकी उस अवस्था- पर निर्भर है जिसमे हम होते हुँ; क्योंकि हमारा शरीर हमारी चेतनाका ही एक यंत्र है और यह चेतना इसपर सीधा कार्य कर सकतीं है और इससे जो चाहे प्राप्त कर सकती है ।

 

            अब यदि तुम साधारण भौतिक चेतनामें निवास करते हों, यदि तुम चीजोंको साधारण भौतिक चेतनाकी दृष्टिसे ही देरवते हैं।, साधारण भौतिक चेतनासे उनके बारेमें विचार करते हो तो अपने शरीरपर कार्य करनेके लिये तुम्हें साधारण भौतिक साधनोंका ही उपयोग करना पड़ेगा । ये भौतिक पद्धतियां एक पूरा-का-पूरा विज्ञान हैं जिसे मनुष्यने अपने अस्तित्वकी लंबी अवधिमें उपार्जित किया है । यह विज्ञान बहुत जटिल है, इसकी प्रक्रियाएं अनगिनत, पेचीदा और अनिश्चित है, प्राय. परस्पर-विरोधी, सदा प्रगतिशील और लगभग पूर्णतया सापेक्ष है! फिर भी इससे बहुत सुनिश्चित और यथार्थ -परिणाम प्राप्त हुए है । जबसे शारीरिक शिक्षगा एवं संवर्धन- की प्रवृत्तिने जोर पकड़ा है इस विषयमें बहुत-से (g२ाईक्षण, अध्ययन और निरीक्षण हुए है और उन्हें संकलित किया गया है जिनसे हम अपने भोजन, क्रिया-कलाप, व्यायाम आदिको एवं समस्त बाह्य जीबनको व्यवस्थित कर सकते है और जो इनका अध्ययन और दृढ़तासे पालन करना चाहते हू उन्हें अपने शरीरको स्वप्तावस्थामें बनाये रखेंने, यदि उसमें कोई दोष हों तो उन्हें सुधारने और इसकी सामान्य अवस्थाको समुत्रत करनेमें ये काफी सहायता करते है और कभी-कभी तो बहुत ही आश्चर्यजनक परिमाण प्राप्त करनेमें मी ।

 

इसके अतिरिक्त मैं यह भी कह सकतीं हूं कि यह बौद्धिक मानवी

 

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विज्ञान, जैसा कि यह आजकल है, सत्यको प्राप्त करनेके अपने सच्चे प्रयत्न- मे अधिकाधिक और आश्चर्यजनक रूपमें, आत्माके मु_ल सत्यके निकट आता जा रहा है । और ऐसी प्रवृत्तिको पहलेसे देख सकना असंभव नहीं है जिसमें ये दौनों मल सत्यके बहुत गहरे और बहुत घनिष्ठ ज्ञानमें एक हा जायेंगे ।

 

        इस प्रकार, उन सभीके लिये जो भौतिक स्तरपर और भौतिक चेतनामें निवास करते है, अपने शरीरके साथ व्यवहार करते हुए_ भौतिक साधनों और प्रक्रियाओंका उपयोगमें लाना आवश्यक है । और चूकि अधिकतर लोग, यहांतक कि आश्रमवाले भी, एक ऐसी चेतनामें रहते है जो पूरी तरह भौतिक न सही पर मुख्यतः भौतिक ही है, ते। उनके लिये यहीं अधिक स्वा- भाविक है कि वे शरीरकी सुरक्षाके लिये भ1ऐतिक विज्ञानद्वारा बताये गये सिद्धल्तोका अनुसरण एवं पालन करें ।

 

          अब, श्रीअरविंदका शिक्षाके अनुसार यह अंतिम प्राप्तव्य स्थिति नहीं है, ना ही यह वह आदर्श है जिसतक हम उठना चाहते है । इससे ऊंची एक अवस्था है जिसमें चेतना, मी अपने. क्रिया-व्यवहारोंमें मुख्यतः या अंशत: मानसिक रहते हु भी, आध्यात्मिक जीवनके लिये अपनी अभीप्सामें उच्च- तर क्षेत्रोंकी ओर पहलेसे खुली होती है और अतिमानसिक प्रभावके प्रति मी खुली होती है ।

 

        चेतनाके इस प्रकार खुल जानेपर व्यक्ति उस अवस्थाके परे चला जाता है जिसमे जीवन विशुद्ध रूपसे भौतिक होता है (जब मैं ''भौतिक'' कहती हूं तो मैं उसमें समस्त मानसिक और बौद्धिक जीवनको और सभी मानव उपलब्धियोंको, यहांतक कि उच्च कोटिकी मानवीय उपलब्धियोंको मी सम्मिलित कर लेती हू, मैं उस भौतिक जीवनकी बात कर रही हूं जहां मानवीय क्षमताएं अपने शिखरपर है, उस पार्थिव एवं भौतिक जीवनकी जिसमें मनुप्य मानसिक और बौद्धिक दृष्टिसे उ५-च प्रकारकी प्राप्तियोंको अभिव्यक्त कर सकता है), व्यक्ति उस भौतिक अवस्थाको पार कर अतिमानसिक शक्तिकी ओर, जो इस समय पृथ्वीपर क्रियाशील है, खुल सकता है और उस मध्यवर्ती क्षेत्रमें प्रवेश कर सकता है जहां दोनों प्रभाव आपसमें मिलते और एक-दूसरेमें व्याप्त हो जाते है, अर्थात्, जहां चेतना अपने क्रिया-कलापों- मे मानसिक और बौद्धिक रहते हुए भी अतिमानसिक शक्ति और सामर्थ्यसे इतनी भरपूर होती है कि बह उच्चतर सत्यका यंत्र बन सकती है ।

 

        वर्तमान समयमें पूर्वापर इस स्थितिको वे लोग प्राप्त कर सकते है जिन्होंने इस समय अभिव्यक्त होती हुई अतिमानसिक शक्तिको ग्रहण करने- के लिये अपने-आपको तैयार किया है । और उस अवस्थामें, चेतनाकी

 

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उस अवस्थामें, शरीर पहलेकी अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ इस स्थितिसे लाभ उठा सकता है । वह सत्ताके मूल सत्यके साथ इस हदतक सीधा संपर्क स्थापित कर सकता है कि वह सहज ही, हर क्षण अंतः प्रेरणा या अंतदष्टिसे यह जान लें कि क्या करना है और यह कि वह इसे कर सकता है ।

 

        मैं कहती हू कि इस स्थितिको अब वे सभी प्राप्त कर सकते है जो अतिमानसिक शक्तिको ग्रहण करने, आत्मसात् करने और उसका आदेश माननेके लिये अपने-आपको तैयार करनेका कष्ट उठाते है ।

 

         स्वभावत: इससे ऊंची एक स्थिति है, वह स्थिति जिसे श्रीअरविंद आदर्श- के रूपमें रखते हैं -- दिव्य शरीरमें दिव्य जीवन । लेकिन वे स्वयं कहते है कि इसमे समय लगेगा । यह पूर्ण रूपांतर है जो चुटकी बजाते ही नहीं सिद्ध हों सकता । वह बहुत अधिक समय लें सकता है । लेकिन जब वह हो जायेगा, जब चेतना अतिमानसिक चेतना बन जायेगी, तब क्षणक्षणपर मानसिक पसंद कार्र्योका निश्चय नही करेगी, न काम शारीरिक योग्यताके अधीन होगा । सारा शरीर ही सहज और पूर्ण रूपमें आन्तरिक सत्यकी पूर्ण अमिउयक्ति होगा ।

 

         यही वह आदर्श है जिसे सामने रखना चाहिये और जिसकी उपलब्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये । परन्तु तुम्हें यह भ्रम नहीं होना चाहिये और यह नही सोचना चाहिये कि यह द्रुत और चामत्कारिक रूपमें होनेवाला रूपांतर होगा, जो तुरत-फुरत, अद्भुत रूपमें, अनायास और बिना काम किये हो जायेगा ।

 

        तथापि अब यह एक सभावनामात्र नहीं है, अब यह सुदूर भविष्यके लिये केवल प्रतिज्ञा भी नहीं है, यह तो एक ऐसी चीज है जो चरितार्थ की जा रही है । और तुम पहलेसे ही न केवल पूर्वज्ञानद्वारा, बल्कि अनुभ्तिद्वारा भी उस मुहूर्त्तको देख सकते हों जब शरीर सत्ताके सर्वाधिक आध्यात्मिक भागके अनुभवको सर्वनाश दोहरा सकेगा जैसे आंतरिक आत्मा पहले कर चुकी है । शरीर अपनी दैहिक चेतनामें' परम सद्वस्तुके सामने खड़ा हों सकेगा, उधर समग्र रूपमें मुड सकेगा ओर अपने सभी कोषोंके संपूर्ण आत्म- दान और पूर्ण सचाईके साथ कह सकेगा. ''मैं 'तू' बन जाऊ - अनन्य भावसे, पूर्ण भावसे -- 'तु' बन जाऊं, असीम रूपमें, सनातन रूपमें... बिलकुल सहज रूपमें ।''

 

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